25 साल के बाद फिर से तरक्की की राह में विश्वविद्यालय
स्वतंत्रदेश , लखनऊ:90 के दशक में लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष प्रत्याशियों के बीच मतगणना में कांटे की टक्कर थी। हालात ये हो गए कि कभी मतगणना में दोनों के बीच टाई हो जाता तो कभी एक दो वोटों के अंतर से हार जीत हो जाती थी। कानून व्यवस्था की स्थिति बुरी तरह से बिगड़ने लगी थी। उस वक्त के गवाह रहे लोग बताते हैं कि इस संबंध में निर्णय करने के लिए प्रधानमंत्री कार्यालय तक का हस्तक्षेप हुआ था। जिसके बाद मनोज तिवारी को अध्यक्ष निर्वाचित घोषित किया गया था। बाद में मनोज तिवारी कुछ तकनीकी कारणों से अयोग्य घोषित कर दिए गए थे। 1980 से 2005 का काल लखनऊ विश्वविद्यालय के लिए राजनैतिक संक्रमण का समय रहा जबकि छात्र राजनीति में सियासी दलों का पूरा प्रभाव हो गया था। लखनऊ विश्वविद्यालय की राजनीति मुख्यमंत्री आवास से संचालित की जाती थी। जिसका परिणाम हुआ कि इन 25 सालों में सुनहरे अतीत को विश्वविद्यालय ने खोया और बदनामी का ठीकरा फूटा मगर धीरे धीरे बदलाव हुए अब एक बार फिर से कुछ कमियों के बावजूद सुधार हो रहे हैं। परिसर बदल रहा है।
एलयू में राजनीति हमेशा से होती रही। पूर्व राष्ट्रपति शकर दयाल शर्मा भी यहां के छात्रसंघ का हिस्सा रहे। वर्तमान में मंत्री ब्रजेश पाठक भी पूर्व अध्यक्ष रहे। इसी तरह से अरविंद सिंह गोप, शारदा प्रताप शुक्ल और ऐसे ही न जाने कितने ही नाम एलयू के छात्रसंघ से जुड़े रहे। 1953 में केजीएमयू के छात्र को गोली लगने से हुई मौत के बाद आंदोलन हुआ था।1960 मनोविज्ञान विभाग के एक प्रोफेसर पर छात्रा के उत्पीड़न का आरोप 1960 में लगा था। तब पहला बड़ा आंदोलन हुआ था। मगर 1980 के बाद सियासी दलों ने एलयू के छात्रसंघों की बागडोर सीधे अपने हाथ में ले ली। जिसका नतीजा ये हुआ कि मुख्यमंत्री कार्यालय से अनुशासनहीन छात्रों को शह मिलने लगी। एलयू का माहौल खराब हुआ। ये दौर हाईकोर्ट के छात्रसंघ चुनाव पर रोक लगने तक जारी रहा। 2005 आते आते राजनैतिक माहौल शांत हो गया।