लखनऊ ज़ू का 99 वर्ष
स्वतंत्रदेश ,लखनऊ:बनारसी बाग से प्रिंस ऑफ वेल्स जूलॉजिकल गार्डन, चिड़ियाघर और अब नवाब वाजिद अली शाह जूलॉजिकल गार्डन का नाम, जहां वन्यजीवों की छोटी सी दुनिया है। यहां के कई वन्यजीव दुनिया में अपनी पहचान छोड़कर चले गए। वह जीवित तो नहीं हैं, लेकिन उनकी चर्चा आज भी होती है। चिडिय़ाघर की पहले सैर कर चुके लोग आज भी जब यहां आते हैं तो उनकी निगाह उस बाड़े पर जाती है, जहां थोड़ा समय बिताने के बाद वह बचपन की तरफ लौट जाते थे। भूल जाते थे कि वह बड़े हो गए हैं और उस वन्यजीव के साथ दूर से खेलने में मस्त हो जाते थे।
दर्शकों को दूर से पास आता देख हुक्कू इस कदर खुश हो जाता था कि जैसे उसका अपना कोई आ गया हो। अपनी बोली से हर किसी को आकर्षित करने वाले हुक्कू की बोली की तरह ही दर्शक भी उसकी आवाज की नकल करते थे। तब उसके बाड़े के आसपास तमाम आवाजें गूंजने लगती थीं। कालू नाम से हुक्कू की पहचान थी और 25 नवंबर 1987 को देहरादून चिडिय़ाघर से उसे लाया गया था। तब उसकी उम्र आठ वर्ष की थी और तीस साल तक यहां दर्शकों का मनोरंजन करने वाला 38 वर्ष की उम्र में चल बसा था।
वृंदा को देखने जुटती थी भीड़
वह बब्बर शेर था, लेकिन आंखों में रोशनी नहीं थी। कमर भी टेढ़ी थी, लेकिन वह दुनिया में चर्चा में आ गया था। चिड़ियाघर के अस्पताल के पास वह लोहे से बने पिंजड़े में रहता था और दर्शक भी उसे देखने जाते थे। वह मीडिया में इसलिए चर्चा में आ गया था, क्योंकि उसकी मर्सी किलिंग होनी थी। यानी उसे उसके दर्द से राहत देने के लिए जहर का इंजेक्शन देकर मारा जाना था। मार्च 1998 में मोबाइल जू से पकड़कर लाए गए वृंदा नाम के बब्बर शेर ने भी चिडिय़ाघर का नाम देश दुनिया में चर्चा में रहा। मोबाइल जू के पिजंड़े में अधिक समय रहने से उसकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी हो गई थी। वह बड़ी मुश्किल से चल पाता था। वर्ष 1999 में उसे मर्सी किलिंग (मौत देना) का निर्णय लिया। अखबारों में खबरें छपीं तो देश ही नहीं विदेश में रह रहे वन्यजीव प्रेमी वृंदा के पक्ष में उतर आए।