काशी की होली में परंपराओं के रंग, जब बाबा से ली जाती है रंग खेलने की अनुमति
स्वतंत्रदेश ,लखनऊवाधिदेव महादेव बाबा विश्वनाथ की नगरी काशी का हर रंग निराला है। इसमें काशीपुराधिपति को प्रिय फाग का भी रंग है। पूरी दुनिया तो चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को होली मनाती है, लेकिन काशी इससे 40 दिन पहले माघ शुक्ल पंचमी से ही इस त्योहार के इंद्रधनुषी रंगों में डूब जाता है। वसंत पंचमी पर एक ओर रेड़ गाड़ते हुए होलिका की स्थापना की जाती है तो वैष्णव भक्त होली का श्रीगणेश करते हैं। फागुन शुक्ल एकादशी पर रंगभरी एकादशी के मान-विधान अनुसार काशीवासी अपने पुराधिपति से होली खेलने की अनुमति पाते हैं। बाबा के गणों के रूप में महाश्मशान पर चिता भस्म से होली मनाते हैं। अब इन परंपराओं के निर्वाह के बाद काशीवासियों को इंतजार है फागुन पूर्णिमा की रात का जब होलिका जलाई जाएगी और अगली सुबह चौसट्ठी देवी के चरणों में रंग अर्पित कर समूची काशी होली के रंगों में डूब जाएगी।
इसके बाद अबीर-गुलाल के साथ धमाल का क्रम होली के दूसरे मंगलवार को बुढ़वा मंगल तक जारी रहेगा जिसमें रंग के साथ सुर और पुष्प की भी वर्षा होती है। रंगोत्सव में एक रंग वैष्णव भक्ति का भी है। वैष्णव भक्त माघ शुक्ल पंचमी तदनुसार वसंत पंचमी से फाग के रंगा-रंग अनुराग में डूब जाते हैं। काशी के विख्यात वैष्णव तीर्थ षष्ठपीठ गोपाल मंदिर में सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा अनुसार यह आयोजन शुरू हुआ। होलाष्टक पर मंदिर के विशाल हरे-भरे बगीचे में आयोजित फागोत्सव श्रीकृष्ण प्रभु की लीला भूमि गोकुल-वृंदावन के कुंज – निकुंजों में स्वयं लीलाधर द्वारा द्वापर में रचाए गए रंगोत्सव के दैवीय आनंद की अनुभूति करा गया। मानों स्वयं ब्रजधाम ही काशी में उतर आने का अहसास दे गया। काशी के धरोहरी उत्सवों की सूची में बगीचे की होली के नाम से अंकित इस मनोहारी उत्सव का स्वरूप प्राचीन काल से ही झूलनोत्सव का रहा है।