उत्तर प्रदेशराज्य

चुनाव ने खड़े किये 360 से ज्यादा स्टार्टअप

स्वतंत्रदेश ,लखनऊलोकतंत्र का महापर्व स्टार्टअप और कंपनियों के लिए बेहद उपजाऊ सीजन के रूप में उभर कर सामने आया है। चुनाव प्रबंधन और तकनीक से लेकर राजनीतिज्ञों के लिए पाठशालाएं तक चल रही हैं। इस लोकसभा चुनाव में पहली बार आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का व्यापक स्तर पर इस्तेमाल हो रहा है। बूथ स्तर तक के डाटा के लिए मारामारी है। हर दल अपनी जरूरत का डाटा लेने के लिए मुंहमांगी कीमत देने को तैयार है। कुल मिलाकर चुनावी सीजन एक बड़े बाजार में तब्दील हो रहा है, जिसका आकार दस हजार करोड़ से भी ज्यादा का हो गया है। दिलचस्प बात यह है कि राजनीति से जुड़े इस बाजार के खिलाड़ी महज 25 से 45 साल के युवा हैं। भारत जैसे विशाल देश में औसतन हर छह महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते रहते हैं। लोकसभा चुनाव में डेढ़ से दो लाख करोड़ रुपये तक खर्च होने का अनुमान है। पंचायत, नगर निगम और विधानसभा से लेकर लोकसभा चुनाव तक में हर साल औसतन 70 हजार करोड़ रुपये खर्च होते हैं। चुनाव प्रबंधन से जुड़े नौ एक्सपर्ट के मुताबिक कंपनियों के बिजनेस के लिहाज से चुनाव का सालाना बाजार कम से कम 45 हजार करोड़ रुपये का है। यानी 70 हजार करोड़ की इस राशि में सबसे बड़ा हिस्सा चुनाव प्रचार का है।

एआई ने आसान कर दिया कनेक्शन
इस चुनाव में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का इस्तेमाल पहली बार हो रहा है। सामान्य सेवाओं के एवज में एआई की सेवाएं पांच गुना महंगी हैं, लेकिन इनकी पहुंच और मतदाता से कनेक्शन ज्यादा प्रभावी है। हर मतदाता के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ने का सबसे सशक्त माध्यम एआई हो गया है। इनका इस्तेमाल तीन हिस्सों में सबसे ज्यादा हो रहा है।

वॉयस क्लोनिंग : नेता की आवाज क्लोन की जाती है। फिर मतदाता या जिससे भी संपर्क करना हो, उसका नाम लेकर नेताजी बात करते हैं। इसे पर्सनलाइज कन्वेसिंग कहते हैं। कॉल सेंटर से फोन का खर्च 30 पैसे प्रति मिनट आता है। एआई सेंटर से यह खर्च डेढ़ रुपये प्रति मिनट तक है।

वीडियो क्लोनिंग : दक्षिण भारत में हाल ही में विधानसभा चुनावों में तीन भाषण इसी तकनीक से दिए गए। फिर इसे अन्य राज्य के नेताओं ने भी आजमाया। इसके लिए नेता के वीडियो और ऑडियो की क्लिपिंग लेकर एआई हावभाव का अध्ययन करता है। फिर नेता की एआई इमेज तैयार की जाती है। इस इमेज के जरिये मनचाहा भाषण दिया जा सकेगा। ये तकनीक सोशल मीडिया से प्रचार के लिए बेहद कारगर है। एक एआई इमेज का खर्च 5 लाख से एक करोड़ रुपये तक है।

कार्यकर्ताओं के लिए : अपने नेता के साथ अपनी फोटो लगाकर वायरल करने का कार्यकर्ताओं में क्रेज होता है। इससे वे पार्टी के साथ जुड़ाव महसूस करते हैं। नेता के साथ सेल्फी लेने से चुनावी प्रचार में ऊर्जा मिलती है। इसका रास्ता भी एआई ने निकाल दिया है। क्रिएटिव टूल के जरिये एक क्लिक पर दस से ज्यादा बैकग्राउंड तैयार हो जाते हैं। कार्यकर्ताओं में यह सबसे ज्यादा लोकप्रिय है और खर्च भी एक हजार रुपये महीना ही है।

डाटा बाजार ने हर वर्ग तक पहुंचने का बनाया रास्ता
चुनाव में डाटा की बहुत बड़ी भूमिका है। चुनावी डाटा में ही 30 से ज्यादा स्टार्टअप काम कर रहे हैं। ये बूथ लेवल तक की मॉनिटरिंग का रोडमैप तैयार करते हैं। 70 से ज्यादा एप के जरिये लाइव मॉनिटरिंग की जा रही है। 

  • पिछले दस चुनावों से जुड़े एक-एक बिंदु के डाटा की खासी मांग है। इससे एक-एक घर का डाटा राजनीतिक दलों के पास होता है। जनता की नाराजगी और मांगों की फेहरिस्त पहले से ही प्रत्याशियों के पास होती है। इससे जुड़े लोगों के मुताबिक एक डाटा की कीमत 50 हजार रुपये से लेकर 20 लाख रुपये तक हो सकती है।
  • 45 हजार करोड़ रुपये सालाना का चुनावी बाजार दस साल पहले करीब-करीब खाली था। अब यह सेक्टर एफएमसीजी के कई उत्पादों को भी टक्कर देने लगा है। 2013 की बात करें तो तब बमुश्किल 10 स्टार्टअप थे। वहीं, 2019 के आम चुनाव के दरम्यान 155 से ज्यादा कंपनियों का उदय हो गया।
  • पहली बार चुनाव संगठित इंडस्ट्री के रूप में सामने आया। चुनाव हाईटेक   हो गए और चुनाव मैनेजमेंट में लगी कंपनियों की बल्ले-बल्ले हो गई। आज इनकी संख्या 360 से भी ज्यादा हो चुकी है। इनमें से कुछ तो कॉरपोरेट अंदाज में, तो कुछ खामोशी से पार्टी और प्रत्याशियों के चुनाव व पर्सनालिटी मैनेजमेंट की जिम्मेदारी संभाल रही हैं। इस काम में एबीलेन माइंड्स, माइंडशेयर, कैंडीडेट, जार्विस्तान, आईपैक, वराय, पॉलिटिकल एज, जनसोच आदि लगी हुई हैं।

तीन हिस्सों में हैं स्टार्टअप

  • बड़े स्टार्टअप और कंपनियां केवल राजनीतिक दलों का प्रबंधन देखती हैं। छोटे-बड़े मिलाकर कुल 22 राजनीतिक दल अभी इनकी सेवाएं ले रहे हैं।
  • ये मिडिल लेवल की कंपनियां हैं। इनका काम विधायकों और सांसदों के क्षेत्र की निगरानी के अलावा सोशल मीडिया में ब्रांड इमेज और स्टोरी वायरल करना है।
  • ये व्यक्तिगत काम देखने वाली कंपनियां एक तरह से रीटेल सेक्टर जैसी हैं। किसी एक नेता का काम देखती हैं। उनका पोर्टफोलियो मैनेज करती हैं।

कॉरपोरेट से भी महंगी हो गई राजनीति
चुनाव प्रबंधन से जुड़े युवाओं का साफ कहना है, हमने मतदाता के मूड को समझने का रास्ता आसान कर दिया है। पर, यह भी सच है कि राजनीति के कॉरपोरेट की तरह काम करने से यह महंगी हो गई है। यही नहीं मोनोपोली भी बनती जा रही है। कॉरपोरेट पॉलिटिक्स में जिसकी जेब में पैसा है, आज वही राजनीति में आ रहे हैं और टिक रहे हैं। उनका यह भी मानना है कि कंसल्टेंसी ने भारतीय राजनीति को और ज्यादा भ्रष्ट बनाया है।

अच्छा राजनेता बनाने के लिए कोर्स भी
इंडियन स्कूल ऑफ डेमोक्रेसी में 150 से ज्यादा अच्छा राजनेता बनने का पाठ पढ़ रहे हैं। शी कोर्स केवल महिलाओं के लिए है, जो एक हफ्ते का है। डेमोक्रेसी एक्सेल दस दिन का कोर्स है। गुड पॉलिटिशयन नौ महीने का कोर्स है। हर तिमाही में दो हफ्ते का प्रोग्राम है। फैकल्टी में पूर्व एमपी और एमएलए हैं। ये प्रयास सैद्धांतिक राजनीति को बचाने के मकसद से शुरू किया गया है।               

नेताओं का होमवर्क आसान हो गया
दस साल पहले राजनीतिक दलों में चुनाव प्रबंधन को लेकर खास दिलचस्पी नहीं थी। सभी की अपनी टीम होती थी, लेकिन अब यह काम आउटसोर्स हो रहा है। डाटा से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस तक की फीस है। इसके दम पर राजनीतिक हस्तियां अपना होमवर्क मजबूत करके बाहर निकल रही हैं। हालांकि इस वजह से चुनाव महंगे भी हो गए हैं।
-विक्रांत सेंगर, इलेक्शन मैनेजमेंट एंड स्किल्स

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